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<poem>
अब सत्य की सड़क पर
है झूठ का कुहासा
स्वार्थों की ठंड
बढ़ती ही जा रही है हर-पल
परहित का ताप ओढ़े
सुविधा का नर्म कम्बल
 
सब प्रेम की लकड़ियाँ
बस दे रहीं धुआँ सा
 
हर मर्सिडीज भागे
पैसों की रोशनी में
ईमान-दीप वाले
डगमग बहें तरी में
 
बढ़ती ही जा रही है
अच्छाई की हताशा
 
घुटता है धर्म दबकर
पाखंड की बरफ से
तिस पर सियासतों के
तूफ़ान हर तरफ से
 
कुहरा बढ़ा रही है
नफ़रत की कर्मनाशा
 
पछुआ हवा ने पाला
ऐसा गिराया सब पर
रिश्तों के खेत सारे
होने लगे हैं बंजर
 
आयेंगी गर्मियाँ फिर
बाक़ी है बस ये आशा
</poem>
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