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<poem>
समय की कुल्हाड़ी ने
काट दिया बरगद
पाकर
अब जीवन का आसमान सूना
सूरज का ताप हुआ
पहले से दूना
 
आँगन को हुआ भरम
आज बढ़ा है क़द
 
बड़ा हुआ
ये बचपन
जिसकी डालों पर
लदा हुआ
कंधों पे
आज वही कट कर
 
यही चक्र दुनिया का
परमचक्र शायद
 
पुलक-पुलक उठता
जिसकी छाया में मन
देह वही
नहीं रही
आज यहाँ पावन
 
मुझे लगा अखिल विश्व
अर्थहीन बेहद
</poem>
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