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{{KKRachna
|रचनाकार=लाल्टू
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|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
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<poem>
किन कोनों में छिपोगे
कब तक छिपोगे
किस किस से छिपोगे

बार बार दुहराता हूँ ग़लतियाँ
रह रह कर ढूँढ़ता हूँ गुफाएँ
दुबक सकूँ कहीं कि कोई न जान पाए
मल लूँ बदन में स्याह
लंगोट पहन जटाएँ बढ़ा
बन जाऊँ बेनाम भिक्षु

पर भूख है कि लगती ही है
निकलता हूँ गुफाओं से
लोगों की नजरें अपनी गुफाएँ हैं
सोचता हूँ मुझे ही देखती हैं मुझसे परे जाती निगाहें
कटते दिन रात इन्हीं प्रवंचनाओं में।
</poem>
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