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20:56, 23 जनवरी 2019 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मधु शर्मा
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|संग्रह=
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<poem>
जार जार वे रोती हैं
थामे हुए माथा
कि वे जेसी हैं जहाँ हैं वहाँ से
और न गिरें
रोने से ही तब
भर जायेगा उनका पेट
वे उठेंगी रोक कर थोड़ा-सा रुदन
पानी पी आने
या किसी और बहाने वे लेंगी साँस
इसी घुटती रुलाई से
घर की छोटी-मोटी चीज़ों में
वे उठायेंगी और धर देंगी
जनम-भर का विलाप
फिर चीज़ों को धोने
और पोंछ देने मंे लगीं वे
रोने को भी धोने और पोंछ देने में
लगी रहेंगी शिद्दत से
जिनसे अक्सर ही हुआ करेगा
उनका मन मैला
बस्स्, यूँ ही!
</poem>