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<poem>
वे ढँके हैं चेहरा
कि रोते-रोते
अब आँखें भी ढँके हैं रोना
‘वे रोयेंगी
कब तक आखिर!’
सोच कर शामिल हैं अफ़सोस
कुछ दूसरे भी

इस रोने में,
अंत नहीं है रोने का

एक गीत दूर तक जाता विषाद का
छिपा रहता है चेहरा अफ़सोस का
चेहरे के पीछे
अँधेरा होने तक

याद की हूक भी न दिखे
इस छीज रही देह में
वे ढक लेती हैं पहचान तक पल्ला डाल

देह को औसान नहीं था
कष्टों से
कभी-कभार ही जब वे पहुँचतीं अंत तक
याद करतीं सुख को

कभी वह भी हुआ करता था
कुछ इसी तरह!

</poem>
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