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ये सब जो धूसर-सी हँसी है, कहानी, प्रेम और
चेहरे की लकीरें हैं
पृथ्वी के पत्थरों, कंकालों कँकालों के अन्धकार में
घुले-मिले थे
धीरे-धीरे वे जाग रहे हैं;
पृथ्वी के अविचलित कंकाल कँकाल को खिसका कर
मुझे ढूँढ़ निकालते हैं।
समस्त बंगाल बँगाल की खाड़ी का उच्छवास जैसे थम जाता है;
मीलों तक यह धरती नीरव बनी रहती है !
जाने कौन कहता है:
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