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मसखरा / कुमार विकल

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|रचनाकार=कुमार विकल
|संग्रह= एक छोटी-सी लड़ाई / कुमार विकल
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मैं सरकस में एक मसखरा हूँ

रंग—बिरंगे कपड़े ,बेढंगी —सी लंबी टोपी.

रोज़ दरशकों के सामने आता हूँ

सिर के बल चलता

टाँगों से ढोल बजाता हूँ

एक पहिये वाली साइकल हाथ छोड़कर

रोज़ चलाता हूँ

दो पहियों वाली साइकल से अक्सर गिर जाता हूँ.

हाथी के पेट में घुसने का दावा करता हूँ

हाथी के आने पर केवल उसकी पूँछ हिला पाता हूँ.

सरकस के हर करतब में अपनी टाँग अड़ाता हूँ.

अरबी घोड़े की दुलत्ती से दूर भागता हूँ

और यही हरकतें

पिछले कई बरस से दुहराता आया हूँ.

एक समय था, लोग हँसी से लोट —पोट हो जाते थे

तालियाँ पीटते ,धूम मचाते थे

लेकिन अब लोग नहीं हँसते

(शायद यह मेरा भ्रम हो

या हँसी की मुद्राएँ बदल गई हों)

लोग नहीं हँसते

सीटियाँ बजाते हैं

आपस में बातें करते हैं

मेरे वापस जाने की राह देखते हैं.

लेकिन मैं फिर भी—सीटियों, अर्थहीन आवाज़ों के शोर मेम—

अपनी फूहड़ हरकतें

बिना खेद के बार—बार दुहराता हूँ.

शायद किसी दिन,

कोई एक दर्शक

मेरी किसी एक हरकत पर

सहसा निमिष मात्र मुस्कुरा दे

और मैं अपने फूहड़ कार्य को अर्थ दे सकूँ.