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<poem>
कुछ इस तरह वह हसीं महफ़िलों की जान हुए
ज़रा-सी दाद मिली क्या कि आस्मान हुए

उन्हीं के दम से सलामत है अम्न की कश्ती
जो लोग ज़ुल्म के तूफ़ां में बादबान हुए

बुज़ुर्ग ही न था वह इक घना दरख़्त था वो
कि जिसके साये में हम खेलकर जवान हुए

हर एक करता है तुमसे अजब सुलूक़ मियाँ
ये तुम हुए कि किराये का इक मकान हुए

मसर्रतें हुईं हासिल तवील वक़्त के बाद
जो एक दूजे के हम दोनों राज़दान हुए

ये चाहतें हैं, इन्हें कब किसी ने बख्शा है
कि चाहतों के तो हर युग में इम्तिहान हुए

सियासी नाग पिटारे में बन्द रहने दो
ये क़ब अवाम पर 'दरवेश' मेह्रबान हुए
</poem>
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