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{{KKRachna
|रचनाकार=कुमार विकल
|संग्रह= एक छोटी-सी लड़ाई / कुमार विकल
}}

सुरक्षा की एक छोटी—सी चाहत में

नींद और जागरण के बीच भटकते हुए

हर रात मैंने की हैं अनेक यात्राएँ

हर यात्रा के अंत पर मिलती है मुझे

धरती से आसमान तक उठी हुइ

एक अभेद्य काली दीवार,

जिससे टकरा कर हताश

मैं लौटा हूँ बार—बार.


किंतु अचानक मिल गया है मुझे एक जादुई मंत्र

जिससे खुल गया है मेरे लिए

दीवार के उस पार का तंत्र

जबसे पहुँचा हूँ दीवार् इस पार

मेरे शरीर में रच गया है समझौतों का ज़हर

मेरी शिराओं मॆं बहने लगा है चापलूसी का रक्त

मैं महसूस करता हूँ—

निकट आ गया है मेरी कुत्ता—फजीहत का वक़्त

मुझे अच्छी लगने लगी हैं

देश भक्त कवियों की कविताएँ

गुदाज जिस्म संभ्रांत महिलाएँ

अफ़सरनुमा लोगों के फूहड़ लतीफ़े

और ज़िंदगी में तरक्की करने के तरीक़े.


मेरे परिचितों की सूची में हो रही है

तरक़्क़ीपसंद लोगों की भरमार,

जिनकी एक जेब में अमेरिका का वीज़ा

दूसरी में माओ की लाल किताब.


इस रहस्यतंत्र में

जब मैं मरूँगा एक कुत्ते की मौत

तो दीवार के इस पार

कोई नहीं करेगा मेरी लाश को स्वीकार.


हाँ , दीवार के उस पार

तराई के जंगलों में

ठिठुरती रातों में भटकते हुए

गुरिल्ला नौजवानों का एक दस्ता

मेरी मौत पर रखेगा एक छोटा —सा प्रस्ताव,

कि आदमी ने जाने हैं अब तक जितने ज़हर

उनमें सबसे अधिक घातक है

सुरक्षा की एक छोटी—सी चाहत का ज़हर.