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{{KKRachna
|रचनाकार=सुशील सिद्धार्थ
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|संग्रह=बोली बानी / जगदीश पीयूष
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<poem>
साधो नदिया पी गै नीरु
गल्ली गल्ली सुसुकि रही है कौनु बंधावै धीरु

राह राह र्वावै पंचाली कोउ न बढ़ावै चीरु
माटी मा मिलिगै मरजादा उघरै सकल सरीरु

देखि परै ना मुलु जकड़े है पाउं पाउं जंजीरु
जाने कौनि दिसा ते आई परिवर्तन कै तीरु

कलह कष्ट म्याटै औरन कै हरै सबन कै पीरु
हाथ गहति है जौनु सांचु कै वहै कहावै बीरु

ना समझौ तौ एकु तमासा मुला बात गम्भीरु
खैंचि देउ अपने करमन ते लम्बी याक लकीरु

</poem>