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11:22, 22 अप्रैल 2019 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=बाल गंगाधर 'बागी'
|अनुवादक=
|संग्रह=आकाश नीला है / बाल गंगाधर 'बागी'
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<poem>
ज़माना मेरी नज़र से गुजरा, मैं ज़माने में
मगर अछूत रहा, अपने ही घराने में
हजारों साल से, कुछ लोगों ने मिटाना चाहा
मगर मैं ज़िन्दा हूँ, भारत के फसाने में
दलितों को मान मिला है, किस जमाने में?
कोई बताये इनके वेदों और पुराणों में?
क्या रामायण की रचना किसी दलित ने की?
गर किया है तो उसे भेजो पागलखाने में
भगवान तेरा कुसूर नहीं है, मुझे मिटाने में
तेरा वजूद है झूठा, सभी फ़साने में
मेरी बर्बादियां तूने क्यों कर देखी?
गर तू था, तो दिखा क्यों नहीं जमान में?
मनु तेरा खून पीने में, मुझे कुछ हर्ज नहीं
हमने तो सड़ा माँस भी खाया है, एक जमाने में
हमें नीचता का दंश, मिला है तुमसे क्यों?
मनु मारेंगे तुम्हें, जला के मशालों से
मेरे भाई का अंगूठा काटने वाला द्रोणा
हम सब ज़िन्दा हैं, एकल्व्य के उसी घराने में
और यह मत समझना कि हम तुम्हें भूल गये
हम तुम्हें मारेंगे, एकलव्य के ही बाणों से
नारियल के पेड़ पे, कातिल की गर्दन होगी
पेड़ ऐसे उगेंगे अब, शम्बूक के हर बाग़ानों में
‘बाग़ी’ गर तुम बागबां1 बनोगे, उस चमन के लिये?
हम बग़ावत करेंगे, उस चमन के आशियाने2 में
</poem>