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{{KKRachna
|रचनाकार=बाल गंगाधर 'बागी'
|अनुवादक=
|संग्रह=आकाश नीला है / बाल गंगाधर 'बागी'
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<poem>
मशाल जले न जले मगर दिल ये जलता है
किसी के दमन से जब कोई दलित मरता है
मेरे तूफान से वह कश्ती न बचा पायेंगे
दलित के ऊपर जिनका बादल बरसता है

उठाकर गिराना तुमने है कहाँ पर सीखा
इस भूचाल से सवाल उमड़ पड़ते हैं
तुम चिराग बुझाना नहीं हम ज्वाला हैं
जिसकी आग में चट्टान भी पिघल उठते हैं

हम कायर नहीं जो मैदान से भाग जाये
जितना गरजता हूँ मेरा दिल उतना बरसता है
तुम्हारा वजूद इंसानियत का खैर ख्वाह नहीं
इसलिए हमारी सासों से तूफान उठता है

आदमख़ोर कातिलों सुनों, ये सारे सामंती
अब यह ज़माना तुम पर थू थू करता है
तुम्हें शर्म नहीं तो अकल पर ही डूब मरो
तुम्हारा धर्म अब किसी को अच्छा नहीं लगता है
</poem>
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