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ठाकुर द्वार / बाल गंगाधर 'बागी'

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|संग्रह=आकाश नीला है / बाल गंगाधर 'बागी'
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<poem>
भोर ही में नींद, उखड़ जाती है
गम की सुबह होती है
मालूम है ठाकुर द्वार जाना है
जानवर खिलाना है

सीधा चारपाई से उठ
ठाकुर द्वार जाता हूँ
हाथों में दातून लिये
चन्नी साफ करता हूँ
खूंटे से जानवर खेल
हौद पे भिड़ाता हूँ
फिर उकड़ू बैठ जाता हूँ

चारा-पानी डाल कर
जानवर निहारता हूँ
सूरज सर पे आये तो
दो कौर खाता हूँ

जिसमें ठकुरानी शाम का खाना देती है
मेरी मजदूरी को थाली में परोस देती है
अक्सर भूख में, मैं जूठन खा जाता हूँ
ठाकुर आवाज पर, बीच में उठ जाता हूँ

रे-टे कहकर बुलाया जाता हूँ
बात-बात पर गालियां खाता हूँ
ठाकुर की मंूछे हवेली से ऊंची हैं
जो अकसर मेरे ऊपर झड़ती हैं

खेत खलियान सब देखता हूँ
पर घर भीतर कम ही जाता हूँ
जब कोई भारी सामान उठाना हो
या बाहर से अंदर ले जाना हो

सुबह से शाम इसी में कट जाता है
टूटी प्याली में चाय परोसा जाता है
अपमान की घूंट समझ पीता हूँ
क्योंकि मैं दलित हूँ, पर भूखा हूँ
</poem>
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