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09:42, 23 अप्रैल 2019 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=बाल गंगाधर 'बागी'
|अनुवादक=
|संग्रह=आकाश नीला है / बाल गंगाधर 'बागी'
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<poem>
झारखण्ड की वादी में, लड़ने वाले फौलादी थे
बिरसा के रणवीर धनुर्धर, अंग्रेजों पर भारी थे
हर मुश्किल झुकाने को, वे बलवान सिपाही थे
अंग्रेज तो उल्टे पैर भागे, जब दौड़े नर-नारी थे
आजादी का बिगुल बजा, बच्चों बूढ़ों को समझाया
अपने हक के लिये लड़ो अब वक्त तुम्हारा है आया
ये शोषण और गुलामी का जातीय राज चलाते हैं
क्यों इनकी सियासत, अब तक समझ नहीं कोई पाया
संसाधन पर कब्जा करके, लूट दमन हत्यारी थे
ज़ुल्मी ज़ुल्म का हथकण्डा अपनाए बलशाली थे
खेती-बाड़ बाग-बगीचे तालाब पोखरे कपट लिये
जल जंगल ज़मीन हमारी कैसे-कैसे हड़प लिये
भूखे नंगे बीमार बच्चे, बूढ़े थे लाचार पड़े
जिन्हें कोई उम्मीद नहीं असहाय निर्बल थे तड़प रहे
हत्याओं का त्योहार मनाते, अंग्रेज दुराचारी थे
हल बैल से कैसे जोत रहे, यहाँ के नर-नारी थे
पाखण्ड अधर्म की बातें, पण्डों ने कैसे फैलाया
अंधभक्त तंत्र-मंत्र में विज्ञान कैसे भरमाया
राजश्रय लेकर वे अंग्रेजों के गुलाम रहे
आदिवासी पिछड़ों को इस नीति से बर्बाद किया
जंगल पर्वत चप्पा-चप्पा बिरसा सेना फैलाये
गुरिल्ला जंग में अंग्रजों को, झारखण्ड में हराये थे
पथरीली राहों पर ज़ालिम को कैसे पटके थे
तीर-कमानों के साथ आदिवासी कैसे लड़ते थे
सोना-चाँदी जवारात अंग्रेजों ने कैसे लूट लिये
देश के जमींदारों ने पिछड़ों की ज़मीनें छीन लिये
अपने ही देशवासी को, दलित अछूत कहते थे
बेगारी में खटा-खटा के गुलाम बनाये रखते थे
लाचार बरसती आंखों से, शबनम व चिन्गारी थी
जिन्दा जलते लोगों में आवाज दबी एक भारी थी
पर अपने भी गद्दार हुए, घर ऐसे ही बबार्द हुए
उठते हुए मकान गिरे कुछ जिन्दा जल श्मशान हुए
गांव-गांव और शहर-शहर, घर लोगों के बीरान हुये
इसलिए तड़पते हालत पर लोगों ने हाथ कमान लिये
बूढ़े बच्चे व नर-नारी, सबने ही तीर चलाई थी
अंग्रेजी जमींदारी विरुद्ध लंबी लड़ी लड़ाई थी
थी आग बरसती वाणों से जब-जब तीर कमान चले
जमींदार अंग्रेजों को मार लोग हैरान किये
उखड़े पांव थे भाग रहे, लोगों ने जब दौड़ाया
ऊंची जाति के लोगों का कुछ बचा रहा नहीं साया
झारखण्ड में कैसे-कैसे, बिरसा तिल्खा बलवान हुये
मज़लूम के ख़िलाफ जब महायुद्ध छिड़ता है
खून के चिराग से, मशाल को जलाते हैं
पहाड़ों सा सीना उनका, चिन्गारियां उगलता है
आज वो अफसाना इतिहास का फसाना है
बिरसा मुण्डा का गुजरा वो ज़माना है
तोप का जवाब वो कैसे तीरों से देते थे
साध के निशाना सब आदिवासी बींध देते थे
बंदूक की गोली औ’ तोप अंगेजी न चल सकी
गुरिल्ला वार में उन्हें, ऐसे गिरा देते थे
एकलव्य के तीरों को, ऐतिहासिक बाण बनाते थे
नाम एकलव्य का लेकर, जब-जब बाण चलाते थे
उम्र ही पच्चीस में, कमाल ऐसा कर गए
आदिवासी दलित-पिछड़ांे, के लिए लड़ गए
सबको समानता के, धागे में पिरोकर
सेना बनाकर बिरसा ज़ालिमों से भिड़ गए
गरीबों मज़लूमों के वह मुखिया सरताज थे
बिरसा किसी भी अन्याय के ख़िलाफ थे
सुगना के घर पैदा हो, घर आंगन आबाद किए
दबी राख के ढेरों में, पीड़ित शोषित आजाद किए
सभ्यता की दौड़ में, जो जंगल-जंगल भटके थे
उपनिवेशी राज्य में संसाधन से बिछड़े थे
सदियों से दबी आवाज को, ऐसी ज्वाला बना दिये
उपनिवेशियों को दौड़ा बिरसा मार भगा दिये
</poem>