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09:49, 23 अप्रैल 2019 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=बाल गंगाधर 'बागी'
|अनुवादक=
|संग्रह=आकाश नीला है / बाल गंगाधर 'बागी'
}}
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<poem>
वो इंसानियत की, सारी हदें पार करता है
वो अछूत कहकर, हमें आदमी नहीं समझता है
उसे दलितों पर ज़ुल्म ढाने में, आता है मजा
और धर्म की वो बात भी, बार-बार करता है
जानवर से मोहब्बत, और इंसान से नफरत करना
इस परंपरा पर वो, मजबूती से चलता है
किसी को नीच और अछूत भी कहकर वो तो
सारी महानता बस अपने नाम रखता है
वह भी किसी जाति व वर्ण का भाग है
पर हमारे जाति वर्ण को नीचा ही नीचा कहता है
गुरूर करना अपने तहजीब के तारीख पर
और तारीफ में सबको पीछे भी छोड़ देता है
महिलाओं दलित पिछड़ों को गुलामी में जोड़कर
धार्मिक असमानता को सर पे लेके चलता है।
</poem>