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09:49, 23 अप्रैल 2019 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=बाल गंगाधर 'बागी'
|अनुवादक=
|संग्रह=आकाश नीला है / बाल गंगाधर 'बागी'
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<poem>
जीने के मायने उस वक्त बदल जाते हैं
जब हम झाड़ू या कुदाल को उठाते हैं
नाले व नालियों में कैसे डूब जाते हैं
सर पे मैला हम जब-जब उठाते हैं
क्या हमारे वजूद का सम्मान कुछ नहीं है
समाज की नजर में औकात कुछ नहीं है
एक हाथ झाड़ू और दूसरे में टोकरी
भवन की सफाई करें रहना है झोपड़ी
बच्चे से बूढ़े जवान सारे शामिल हैं
भविष्य उनका खतरे में जो पढ़ने में काबिल हैं
सुबह से शाम तक गली से चौराहे तक
दफ्तर की सफाई करें दोपाये चौपाये तक
ऊपर से गालियां नीचता के दंश तक
घर की सफाई नाबदान पीकदान तक
कितना करें हम सबकी सफाई
गंदी जुबान उनके गंदे दिमाग तक
समाज का चरित्र कितना अलग है
सफाई करने वालों का जीना दूभर है
अछूत है इंसान हो उनकी नजर में
जो सामंती सोच से लड़ाते हरपल हैं
उठना है हमें झाड़ू टोकरी को छोड़कर
दुनिया की नजर में कलम हाथ जोड़कर
अधिकार सारे लेंगे बच्चे हमारे पढ़कर
जंग के मैदान में मनुवादियों को तोड़कर
गंदे अछूत हो नीच के ही नीच हो
जब भी अछूत पढ़े, लड़े न भयभीत हो
दफ्तर में काम करें जीना दूभर है
छुआछूत का बर्ताव सहना हर पल है
हम साफ पानी पीने को तरसते हैं
लेकिन वो ब्रांडेड शराब पीते हैं
कैसे वो लोग मखमल पे लेटते हैं
मगर हम झोंपड़ी, फुटपाथ पर सोते हैं
टाई सूट-बूट क्या-क्या पहनते हैं
इनके लिए लेकिन हम तरसते हैं
वो ए.सी. गाड़ी में पसीने हो जाते हैं
बताओ हर मौसम में हम कैसे रहते हैं
उन्हें बंगले में नींद अक्सर नहीं आती
बताओ हम फुटपाथ पर कैसे सोते हैं?
जिंदगी के सारे तराने उनके नाम हैं
बताओ हम आंसू को कैसे पीते हैं?
नग्में हमारे सारे गली में हैं घुटते
मच्छरों के बीच हम कैसे हैं रहते?
उजाले घर में चकाचौंध उनके
बताओ हम अंधेरे में कैसे हैं रहते?
कितना खाए वो कैसे सोचते हैं रहते हैं
मगर हम निवालों को अक्सर तरसते हैं
अब झाड़ू छोड़ कलम को उठाना है
दिमाग की गंदगी उनका सफाना है
</poem>