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09:50, 23 अप्रैल 2019 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=बाल गंगाधर 'बागी'
|अनुवादक=
|संग्रह=आकाश नीला है / बाल गंगाधर 'बागी'
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<poem>
कोयलों की खदानों में जिंदगी है ढह गयी
सूरज तलाशते यूं रात कितनी कट गयी
मगर मेरी जिंदगी की डोर न ही मिल सकी
आंखों की रोशनी तलाश ते बिखर गई
कोयला बदन है और कोयले की मोहरें
जिंदगी है रेत काली, ऊपर से ठोकरें
जल है जमीन नहीं जंगल न खदान है
अपनी ज़मीन पे न अपनी कमान है
जहाँ हमने पाले ये खुशियों के ख्वाब को
वहाँ से उखड़ आज छूआ जहान है
नन्हें फूल पौधों की लगाई जहाँ क्यारियां
घर है बबार्द औ’ साथ हैं बेकारियां
मेहनत मजदूरी करूं अपनी ही ज़मीन पर
अनाज से घर भरूं उनके अमीन संग
हमारी ज़मीन के वो काश्तकार1 बनकर
हमारे हैं दर्द सारे उनके हसीन पल
ठौर है ठिकाना कहाँ अपना मकान है
हक है सम्मान कहाँ अपना जहान है
जंगल में घूमते घूमंतू मैं हो गया
गांव शहर बस्ती फुटपाथ पे ही सो गया
भूखे पेट अक्सर दिन-रात कहीं सो गया
दुनिया का दर्द सारा नाम अपने हो गया
कोई बताये पहचान मेरी क्या है?
सामने लोकतंत्र के औकात मेरी क्या है?
आदिम समाज हूँ आदिवासी नाम है
फितरत हमारी सरलता की खान है
तीर कमान रखूं भाला या फरसा
मगर भाईचारे में ऊंचा ही नाम है
पर्वत व झरना पे फूलों की वादियां
मेरे बागवानी से सजी इनकी क्यारियां
ताल व तंबूर झांझ मृदंग व मजीरे हैं
आजाद होके लोगों संग नचाती भी हीरे हैं
यहाँ रांझे जान नहीं देते हैं जाति पर
यहाँ प्यार झरनों व नदियों के तीरे हैं
सोनी महिवाल यहाँ प्यार की तमन्ना है
आजाद जिंदगी जीती हर घर की कन्या है
जड़ से पत्तों तक वनस्पति को देखते
झरनों से सागर तक नदियांे को देखते
आगजनी या कुछ हो जमके हैं रोकते
कुदरत को अक्सर हैं हानि से रोकते
घर से कुदरत तक इनकी निगरानी है
आदिवासी समाज की यह गौरव कहानी है
दवा है न दारू पकवान की तो बात क्या
हड़प नीतियों से लुटता समाज यह
लूट है घूसखोरी बेईमान इनके साथ यहाँ
हमारी ज़मीनों पर किसका है राज यहाँ
शहर से जंगल तक राज उनका हो गया
आदिवासी हाथ से संसाधन सारा खो गया
</poem>