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09:57, 23 अप्रैल 2019 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=बाल गंगाधर 'बागी'
|अनुवादक=
|संग्रह=आकाश नीला है / बाल गंगाधर 'बागी'
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<poem>
ये कबीर भी कितना ही मस्त मौला था
दोहे से जन-मन जगाने का काम किया
ईश्वर-अल्लाह के अस्तित्व को नकार कर
तार्किक ज्ञान से पाखण्ड को परास्त किया
पत्थर पूजने से किसी को हरि नहीं मिलता
मस्जिद में चिल्लाने से अल्ला नहीं मिलता
आप कभी नहीं किसी भगवान के सहारे थे
झूठ बोलते हैं ब्राह्मण कि तुम्हें राम प्यारे थे
पत्थर में समाहित चिन्गारी है जैसे
सरसों में समाहित इतना तेल है कैसे?
सोचो दुर्बलों फिर डरो अब नहीं
लाचार न रहो तुम शासक हो यहाँ के
संसार में कहीं भी भगवान नहीं है
लोगों का भरम है कोई शैतान नहीं है
सच का दर्शन समतावादी कबीर का
जग में स्वर्ग नरक कोई मुकाम नहीं है
यह संपदा तुम्हारी, संसाधन यहाँ का
असहाय बने तुम्हारा कुछ नहीं रहा
उठो और ‘अत्त दीपो भव’ बन जाओ
पाखण्डी दुष्चक्र को समझ लो खरा
ब्रह्म है तुम में, न तुम आत्मा उसके
अपने संसाधना के ढेर पे मुरझाये हो केसे?
जल में नलनी है कुम्हलायी क्यों हुई?
बैठाये गए हाय क्यों हाथ पे रखके?
भारत पाखण्ड के दल-दल में फंस गया
ब्राह्मणी आडम्बर का तूफान है बरपा
कबीर का दर्शन इसी के विरुद्ध था
दासता बंधन में अभी, समाज है फंसा
जोड़े हैं कितने लोगों ने, दोहे तुम्हारे नाम
दर्शन बदल तुम्हारा दिया, हिन्दुत्व का नाम
राम की महिमा से, सारा बीजक भर दिये
नवजागरण को फिर से, कर दिया नाकाम
भगवान के अनुयायी तो मंदिर जाते हैं
मंदिर और मस्जिद को नकारा आपने
पाखण्ड ही ईश्वर है, ईश्वर ही पाखण्ड
गांव व नगर घूम-घूम, बताया आपने
कबीरा कहे समाज से, लो मध्यम मार्ग अपनाय
छोड़ो सब की चाकरी, न रहो किसी की छांव
इसी बुद्व के ज्ञान को कबीरा खूब रहा समझाय
आंखों देखी मानो साधो, सब झूठा दो ठुकराय
कितने दिन बीत गये जन-मन
कबीरा पढ़ा खूब दुनिया बेहतर
जुलाहा घर को लालन पालन से
मसि काग़ज न छुआ क़लम
वह अनपढ़ था अज्ञानी नहीं
दोहा व छन्द उसका बेमानी नहीं
अनपढ़ आदमी ऐसा कह नहीं सकता
पर ब्राह्मणों ने गढी क्यों, कहानी नई?
कबीरा तेरा एकतारा , बेसुर ब्राह्मण रहा बजाय
बीजक की धरती पर, भगवान की फसल उगाय
तत्व ज्ञान सब छोड़ कर, दिया मनुवाद फैलाय
मूल ज्ञान के मरम से, दिया समाज भरमाय
अब कबीर ज़िन्दा ब्राह्मणवाद
साखी सबद रमैनी का, अनुपम सार मिटाय
रैन की आंखों में कहाँ, अब चाँद रहा मुस्काय?
ब्राह्मणवाद कबीर घर, कब्जा लिया जमाय
</poem>