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|रचनाकार=बाल गंगाधर 'बागी'
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|संग्रह=आकाश नीला है / बाल गंगाधर 'बागी'
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<poem>
रवि, सद्मार्ग सबको ही दिखाते रहे
जिनके आगे सूरमा भी सर झुकाते रहे
सरगम समता लोगों को सुनाते रहे
ऐसे कारवां वो बुद्ध का बढ़ाते रहे

सगुण चरण चंडाल के, हैं ब्राह्मण से उच्च
पाखण्डी मन से न हो, जिसका ज्ञान मलिच्छ
बस संत वही महान है, जिसमें समता होय
सदाचार की धारा से, कल्याण जगत का होय

सदवाणी रैदास की, जन मन रही समाय
जातिय बंधन में ब्रह्मण, सबको रहा फंसाय
समरसता सम भाव में, जनमन सुखिया होय
यही रवि उपदेश है कि, प्रभुसत्ता न कोय

निर्मल काया संत की, मूलतत्व है ज्ञान
पाखंडी अधर्मी को, सच से लो पहचान
बैर नहीं सम प्रेम रस, में डूबे सब लोग
रवि विषमता कूप में, पड़ा रहे न कोय

दलित शब्द के भार तले, दबे रहे जो लोग
छुआछूत की बेसुरी, बिपदा मंे मति खोय
अंधियारे दिन रैन में, कुछ न सूझे घर-बार
अपने संग बैरी हुए, दी ब्राह्मण ने मति मार

रवि गंगा नहाने, जब नहीं गये थे
तुम्हें गंगा ने कंगन, दिय किस तरह?
जो पानी की धारा है, बस एक नदी
फिर ब्राह्मण ये कहानी, गढ़े किस तरह?

न तो माला सुमिरनी तुम्हारे लिये
सदगति सद्मति दर्शनों में जिये
नाहीं देवी-देवताओं को थे मानते
बस तथावत की दुनिया में तुम थे जिये

मनुवाद में कोई समता नहीं
चतुरवर्ण में कोई एक सा नहीं
न है शूद्र हिन्दू व्यवस्था का भाग
पर यह रहस्य कोई समझा नहीं

कितनी जाति में बांटा भारतीय समाज
अवाम को शूद्र-अतिशूद्र दिया नाम
दलित व पिछड़ा किया प्रचलित यहाँ
और हाशिये1 पर कर दिया आदिवासी समाज

रविदास का दर्शन, जाति के ख़िलाफ था
समानता में गौतम, भावों का नाम था
एकता के सूत्र में पिरोया समाज को
यही उनके मध्यम दर्शन का नाम था
</poem>
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