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10:04, 23 अप्रैल 2019 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=बाल गंगाधर 'बागी'
|अनुवादक=
|संग्रह=आकाश नीला है / बाल गंगाधर 'बागी'
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<poem>
सवर्ण साहित्य में, शोषित बग़ावत क्यों नही हैं?
सावन की तो घटाएं हैं, पर आंख की नहीं हैं
सब दर्द तुम्हारे, मेरे जातिय ज़ख्मों के नहीं
जिसकी तबाही में, सदा सुबह रोती नहीं है
हल और हथेली, तुम्हारे खेतों में घिस जाते हैं
तुम्हारे साहित्य में, उसकी बू भी नहीं आती
उंगलियां हाथ की, पैरों की तरह हो जाती हैं
जो सवर्ण साहित्य की, संवेदना बन नहीं पातीं
कितने सशक्त हैं, तुम्हारे छंदों के बंद
जो यथार्थ को, अभिव्यक्त कर पाते नहीं
सच कल्पना में, ढालने के बाद भी
हमारी पीड़ा का, बोझ उठा पाते नहीं
शैली, जाति को तोड़ने की जगह जोड़ती है
कल्पना से, सच्चाई का गला काटती है
तुम्हारे साहित्य की, यही है वर्णन शैली
जो विरह राग को, योग दर्शन बताती है
ज़मीन से अलग, जो साहित्य बताता है
वही सदैव दलितों को, गुलाम बनाता है
यातना का रक्त, क़लम से बागी बनाने से
दबे कुचले लोगों को, लड़ना सिखाता है
</poem>