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काळ: 2 / रेंवतदान चारण

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<poem>
दीखै धरा अडोळी अबखी
आभौ निरख्यां नैण भरीजै
भूखा तिरसा मिनख डांगरा
कळपै बिलखै हियौ पसीजै
ढांणी-ढांणी ढीरा लाग्या
उजड़ण लागी भरी गवाड़ी
बेलां बळी बांठका बळग्या
महाकाळ री पड़ी छिंयाड़ो

अंस मूळ सूं जूंझण लाग्यौ
स्रस्टी में मंडियौ घमसांण
रूंख रूखाळां नै यूं बोल्या
काळ पड़ै है थारै पांण
माटी रा ठाया रांमतिया
परमेसर पहुमी नै राची
आतमबळ तौ दियौ अणूंतौ
पण काया तौ घड़ दी काची
आप आपरी जूंण बचावण
लूट लड़ाई जबरी माची
मिनख अधूरौ आंधौ होवै
बातां ख्यातां व्हैगो साची
खुद रै लखणां बळै मूंजड़ी
तौ ई नीं छोडै करड़ांण

अंस मूळ सूं जूंझण लाग्यौ
स्रस्टी में मंडियौ घमसांण
रूंख रूखाळां नै यूं बोल्या
काळ पड़ै है थांरै पांण

धरती नै चावै ज्यूं बरतै
गरब करै राखै धणियाप
धीजौ थाक्यौ धरम छूटियौ
ठौड़ कुठौड़ां फूट्यौ पाप
स्वारथ रा हींडा मंडवाया
फेरण लागौ ऊंधौ जाप
पंच तत्व रौ परम पूतळौ
कार लोप दी आपौ आप
सत सेवट ई कांण तौड़ दी
आंधौ बोळौ हुयग्यौ जांण

असं मूळ सूं जूंझण लाग्यौ
स्रस्टी में मंडियौ घमसांण
रूंख रूखाळां नै यूं बोल्या
काळ पड़ै है थांरै पांण
</poem>
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