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18:39, 27 मई 2019 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मधुकर अस्थाना
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<poem>
रावण वही
नाम बदला है
लिखा-पढ़ा अगला-पिछला है
गली, मुहल्लों, सड़कों
पर आते-जाते वह मिल जाता है
उसके सम्मुख राम-लखन का अधर
अचानक खिल जाता है
पीछे मुड़ते
ही सब कहते
इस पोखर का जल गँदला है
चोर-चोर मौसेरे भाई
खाट खड़ी कर देते सबकी
भीतर ही घुटतीं आवाज़ें मर जातीं
इच्छाएँ मन की
टिनोपाल से
धुला यहाँ पर
हर बगुले का पर उजला है
कमलनाल अब लगीं
कुतरनें भूखी-प्यासी क्रूर मछलियाँ
घिर आतीं नयनों के नभ में बेमौसम
ख़ामोश बदलियाँ
विष्णु छोड़कर
बीस भुजाओं पर
नारद का मन मचला है
</poem>