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{{KKRachna
|रचनाकार=कुमार नयन
|अनुवादक=
|संग्रह=दयारे हयात में / कुमार नयन
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<poem>
चलता है तो बेख़ौफ़ ज़मीं पर नहीं गिरता
क्यों नट तनी रस्सी से फिसलकर नहीं गिरता।

फ़ितरत तो है फ़ितरत ये बदल जायेगी कैसे
दरिया में कभी जाके समंदर नहीं गिरता।

हां धूप में बारिश में भी चलता रहूंगा मैं
जब तक मिरे कदमों पे मुक़द्दर नहीं गिरता।

ये सोच के कुछ ऊंचे मकां वाले हैं नाराज़
क्यों फूस का कच्चा मिरा छप्पर नहीं गिरता।

ग़म ने मिरे मुस्कान से है दोस्ती कर ली
अब अश्क़ कोई आंखों से ढल कर नहीं गिरता।

ये कौन है बच्चों का लहू पी रहा है जो
इतना तो सियासत का सितमगर नहीं गिरता।

जब तक न बहुत सब्ज़ जज़ीरा दिलों का हो
तब तक तो वहां प्यार का लंगर नहीं गिरता।
</poem>
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