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13:38, 25 जून 2019 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=जंगवीर सिंह 'राकेश'
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<poem>
1. औक़ात
इक ऐसा लफ़्ज़,
जो बनाता है दायरे;
जो खींच देता है;
दो दिलों के बीच हदें;
जो खड़ी करता है;
कोम-ओ-मज़हब की दीवारें;
जो क़ैदख़ानों में क़ैद कर लेता है;
किसी के उभरते हुए. 'जज़्बात' ;;
क्या लफ़्ज़ है ? "औक़ात"
2. मैं अक्सर ही ये सवाल सुनता हूँ;
"तुम्हारी औक़ात क्या है?"
क्या है तुम्हारा स्टेट्स?;
तुम कमाते ही कितना हो?;
क्या तुम स्वर्ण हो?
क्षत्रिय या शुद्र ??
यही तमाम प्रश्न 'औक़ात'
जैसे लफ़्ज़ के आलम्बन हैं
आप जो भी हों, जैसे भी हों;
कभी ख़ुद से कीजिएगा इक सवाल:
"क्या आप इन्सान हैं?
क्या आप में ज़िन्दा है 'इन्सानियत'?"
3. औक़ात,
अगर बाँध देती है तुम्हें;
समाज के गले-सड़े रीति-रिवाज़ में;
औक़ात,
अगर धकेल देती है तुम्हें;
जाति-धर्म के जलते हुए अग्निकुण्ड में;
तब तुम्हें, ये बंधन तोड़ने होंगे;
तब तुम्हें जाति-धर्म सब छोड़ने होंगे;
क्योंकि इन्सान का धर्म इन्सानियत है;
और इन्सानियत में 'औक़ात' जैसा,
कोई लफ़्ज़ ही नहीं।
4. समाज, जाति-धर्म, अच्छाई-बुराई, प्रेम,
सत्य-झूठ, धन-दौलत और औक़ात जैसे
लफ़्ज़ों को आईना दिखाती हैं कविताएँ;;
जिन्हें मैं जीता हूँ;
ओढ़ता हूँ, पहनता हूँ;
कविताएँ,
तोड़ देती हैं सब दायरे;
मिटा देती हैं सब हदें ;;
ढाह देती हैं सब दीवारें;
खोल देती हैं क़ैदख़ाने;;
मैं सोचता हूँ,
तुम मेरी वह कविताएँ बनो;
जिनमें व्यतीत किया जा सके;
"सम्पूर्ण जीवन" !!
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