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गीतिका - 1 / सुनीता शानू

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राहों में तुम्हारी हम, जब-जब भी बिखर जाते।
हम खुद को मिटा देते, हम मिट के संवर जाते॥

दो लम्हों की गफलत से बरसों की ये दूरी बनी-
हम आ ही रहे थे तुम, थोड़ा तो ठहर जाते॥

इन आँखों की कश्ती पर करते जो भरोसा तो-
हर गम के समन्दर से तुम पार उतर जाते॥

मिलता न सहारा जो, इस दर्द को आँसू का
हम कैसे बयां करते, हम बोलो! किधर जाते?
</poem>
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