दीप शिखा की लौ कहती है, व्यथा कथा हर घर रहती है,<br>कभी छिपी तो कभी मुखर बन, अश्रु हास बन बन बहती है <br>हाँ व्यथा सखी, हर घर रहती है ..<br>बिछुडे स्वजन की याद कभी, निर्धन की लालसा ज्योँ थकी थकी,<br>हारी ममता की आँखोँ मेँ नमी, बन कर, बह कर, चुप सी रहती है,<br>हाँ व्यथा सखी, हर घर रहती है !<br>नत मस्तक, मैँ दिवला, बार नमूँ <br>आरती, माँ, महालक्ष्मी मैँ तेरी करूँ,<br>आओ घर घर माँ, यही आज कहूँ,<br>दुखियोँ को सुख दो, यह बिनती करूँ,<br>माँ, देक्ग, दिया, अब, प्रज्वलित कर दूँ !<br>दीपावली आई फिर आँगन, बन्दनवार, रँगोली रची सुहावन !<br>किलकारी से गूँजा रे प्राँगन, मिष्ठान्न अन्न धृत मेवा मन भावन !<br>देख सखी, यहाँ फूलझडी मुस्कावन !<br>जीवन बीता जाता ऋउतुओँ के सँग सँग,<br>हो सबको, दीपावली का अभिनँदन !<br>
नव -वर्ष की बधई, हो, नित नव -रस !