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निराला / नागार्जुन

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बाल झबरे, दृष्टि पैनी, फटी लुँगी लुंगी नग्न तनकिन्तु अन्तर दीप्त अन्तर्दीप्‍त था, आकाश-सा उन्मुक्त मन उसे मरने दिया हमने, रह गया घुटकर पवनअब भले ही याद में, करते रहो रहें सौ-सौ हवन । क्षीणबल गजराज अवहेलि‍त रहा जग-भार बनछाँह तक से सहमते थे शृंगालों के प्राण-मननहीं अंगीकार था तप-तेज को नकली नमनकर दिया है रोग ने क्या खूब भव-बाधा शमन ! राख को दूषित करेंगे ढोंगियों के अश्रुकणअस्थि-शेष-जुलूस का होगा उधर फिल्मीकरणशादा के वक्ष पर खुर-से पड़े लक्ष्मी-चरणशंखध्वनि में स्मारकों के द्रव्य का है अपहरण ! रहे तन्द्रा में निमीलित इन्द्र के सौ-सौ नयनकरें शासन के महाप्रभु क्षीरसागर में शयनराजनीतिक अकड़ में जड़ ही रहा संसद-भवननेहरू को क्या हुआ, मुख से न फूटा वचन ? क्षेपकों की बाढ़ आई, रो रहे हैं रत्न कणदेह बाकी नहीं है तो प्राण में होंगे न व्रण ?तिमिर में रवि खो गया, दिन लुप्त है, वेसुध गगनभारती सिर पीटती है, लुट गया है प्राणधन !
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