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<poem>
लोग मुझको कहें ख़राब तो क्या
मैं जो अच्छा हुआ जनाब तो क्या

कुछ नहीं मुश्त-ए-ख़ाक से बढ़ कर
आदमी का है ये रुआब तो क्या

उम्र गुज़री उन आँखों को पढ़ते
इक पहेली है वो किताब तो क्या

मैं हूँ जुगनू अगर तो क्या कम हूँ
और कोई हैआफ़ताब तो क्या

ज़िंदगी ही लुटा दी जिस के लिये
आज माँगे वही हिसाब तो क्या

मिलते ही मैं गले नहीं लगता
फिर किसी को लगे ख़राब तो क्या

हम फ़ना हो गए मुहब्बत में
’दोस्त’ मरकर मिला सवाब तो क्या
</poem>