Changes

अहम् के घेरे में / हरीश प्रधान

1,394 bytes added, 08:50, 11 सितम्बर 2019
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरीश प्रधान |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=हरीश प्रधान
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
आइये
और लटक जाइये,
कहने को
ये मेरा घर है
निहायत सुनसान
वीरान और बियाबान,
आप चमगादड़ों की तरह आएँ
जिधर चाहें लटक जाएँ,
दिन हो या रात
रहती है अंधेरों की बिसात
एक सीलन भरी तेज गंध
स्वार्थों की,
हवा में...घुटन
बीच-बीच में
कान के पर्दों को फाड़ने वाला
तेज कुहराम
इतना कि कभी
नक्कारों कीआवाज़ भी दब जाए,
कभी सन्नाटा
इतना कि साँस लेने तक कीआवाज़ सुनाई दे,
मकड़ी के जालों, गर्द ओ गुबार के बीच-
रोशनी
कभी डरती, सहमती आई थी
अब... अब तो, अंधेरे ही अंधेरे हैं
सभी के यहाँ
अपने-अपने अहम् के घेरे हैं।
</poem>