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08:52, 11 सितम्बर 2019 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=हरीश प्रधान
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<poem>
'''एक'''
मैं,
अपनी ही परछायीं
की छाँह तले
यायावर
मई... जून...
रेगिस्तानी सूरज का
तप्त तप
पीठ पर सह लेता हूँ
सहिष्णु हूँ।
'''दो'''
असफलताई दर्द का
काढ़ा पी
क्षयग्रस्त जि़न्दगी को
स्वस्थ बना
मुस्कराए लेता हूँ
चिकित्सक हूँ।
'''तीन'''
आस्था की चेस्टर में
ढकी हुई
सर्दायी रात में
सत्य की दुल्हन को
बार होटल रेस्तराँ
आदि आदि मंदिर में
वादा कल मिलने का
हर बार किए जाता हूँ
धर्मात्मा हूँ।
</poem>