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पराजय / महेन्द्र भटनागर
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12:58, 22 अगस्त 2008
मिट रहा है मुक्त-जीवन,
कह रहा, पर, छल भरे स्वर, ‘आज नवयुग द्वार !’
: मिल रही है हार !
:
1945
Pratishtha
KKSahayogi,
प्रशासक
,
प्रबंधक
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