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शपथ / जोशना बनर्जी आडवानी

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कितना श्रृंखलित मेरे भीतर एक लड़की है अपराध का बोध जो पन्नो से बनी हैकितना ईश्वरीय तुम्हारे बाहर एक दुनिया हैप्रतीक्षा का प्रयोजनजो ईश्वर ने रची हैहमें ईश्वर की नहीतो ईस्ट इंडिया कंपनी थेजिसे कुछ नरभक्षी खदेड़ चुके हैंनरभक्षी तो भीड़ मे धंसा हैजिसने मीठी भाषा का अंगरखा पहनरखा हैअंगरखा के अंदर का हिस्सागांधारी रूपी पावनता भी ना देख सकीपावनता हर सब्ज़ी वाला अपनेतराज़ू के नीचे चिपकाए गली गली फिरता हैतराज़ू अपने हाथ मे लिये देवीअपराध की ज़रुरत गै़रकानूनी कानून को न्याय दिलाती है
कितनी कारोबारी हैइन सबके बीच नौजवानो की प्रतिभाकितना साहित्यिक है कलम का लहुलूहानहमें कारोबार की कवि शपथ लेते हैं कि वे अब कभी जन्म नहीसाहित्य की ज़रुरत है कितना सामन्तवादी हैसमाज का हर गुटकितनी सियासती हैगले की कुप्पी की धधकहमें समाज की नहीधधक की ज़रुरत हैलेंगे
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