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<poem>
उन दिनों हमारे इधर के प्रेमी भी
तुम्हारे उधर के प्रेमियों के ठीक जैसे ही थे
मेले,कुचेले,बच्चन स्टाइल की पतलून वाले
वे बहुत अजीब किस्म के होते थे
अच्छा! तो मैं कह सकता हूं किस्म किस्म के थे
उनकी प्रेमिकाएं बहुत भोली,लंबे जंपर वाली होतीं।

कुछैक गुटखे का पान करती पर
आज की तरह दारू नहीं पीती,
वे उनदिनों जानू -बाबु जैसे
क्यूट शब्दों से भी अनभिज्ञ थी।
कुछ प्रेमी जब जाते घर का सामान
खरीदने समीप स्थित कस्बे की तरफ
आते वक़्त अपनी प्रेमिकाओं के लिए
मुल्तानी मिट्टी खरीद लाते।
गांव के कुछ बगुले कहते कि
जब कभी बीमार होती कोई प्रेमिका
बहाना वह बनाकर शहर जाती
लौटते वक़्त साथ लाती
कुछ 2100 छाप गुटखे की पुड़ियां
अपने प्यारे, दुलारे प्रेमी के लिए
मिलने के लिए गांव की डिग्गियां सहज थीं
गांव के सारे शक आकर नष्ट होते यहीं,
माएं घर में दादाजी के लिए दलिया चढाती
युगल इधर अंगड़ाई ले डिग्गियों पर मसखरियां करते,
इन जोड़ों का मिलन इनदिनों की तरह
किसी रॉयल गार्डन में नहीं होता
होता ग़र कभी तो,गांव की उतरादी गोचर सीम में होता
छुप-छुप कर आते दोनों,डर हमेशा प्रेमिका को होता
बाते होती, गुटखा पान होता,स्नेहिल सपने सजते
मुद्दा जब स्पर्श पर आता प्रेमिका हर बार डर से भर जाती

"कोई देख लेगा रे..."

कालू आश्वस्त कर बैठाता पुनः अपने पास
ठीक अपने बगल में, इतने में शाम हो बनती।
एक त्रासदी से गुज़रते इन प्रेमियों ने फैसला लिया
आंदोलन किया सभी प्रेमियों ने,कुछ प्रेमिकाओं ने भी
सब मोबाइल क्रांति से जुड़ गए, मांगे पूरी हुई
सब अच्छा हुआ मगर इनदिनों भी
हमारे इधर के प्रेमिकाएं स्पर्श पर
तुम्हारे उधर की प्रेमिकाओं की तरह
बुदबुदा करती है -

"कोई देख लेगा रे" ....
</poem>
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