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अमर पेड़ / राजेन्द्र देथा

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<poem>
इन दिनों कविताएँ महज
एक पोथी का शब्द रह गयीं
भावनाओं के साथ
अक्षर कुचल दिए गए है
ठीक हाथी के पैर सी ताकतों ने
हाल ही की बात है
शांति सम्मेलन में
दो बारूद बरामद हुए है।
उन दिनों की तरह
पत्रकारिता,पत्रकारिता नहीं रही
वह चाकू की नोंक पर भेष बदल
पक्षकारिता बन गयी है।
लेकिन क्या मौलिकता कभी दबेगी?
नहीं, कभी नहीं!

सुनो!
तर्कहीन ताकतों
तुम उस अमर वटवृक्ष को
कभी काट न पाओगे
जो तुम्हारे द्वारा
अधिकार छीनने पर भी
अटल ठूंठ बना फिरता है।
</poem>
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