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<poem>
हमारे इधर लोकगीतों के समवेत स्वर
तहजीब को संजोए अभी भी है,
अभी भी शेष है गीतों में लोक स्वर
अभी भी अकाल से जुझती थलियों में
दीवड़ी में जल लिए नासेटूओं के लिए
प्राण, पाणी,प्याज और बाजरे की
रोटी के ठीक बाद स्थान आता है इनका
अभी भी सुनी जाती है सूनी नाणों में,
अरणी की धुनें,अभी भी थिरकते है पांव
दूर सीम से आती रायचंद की आवाज से,
अभी भी शेष है बड़े-बुज़ुर्गों की
आंखों में दो बूंद अपनों के लिए,
अभी भी मांगलिक कार्यक्रम में मांगणियारों
का आना बहुत माना जाता है मांगलिक
अभी भी गाए जाते है मधुर गीत
गाए जाती है कोयल विदा होती बेटी के लिए
अभी भी होती है घोले-,घूमर,
अब तक भी दादाजी अपने मोसेरे भाई
जो विभाजन के वक़्त पाक में ही रह गए
की याद में गंवाते है रायचं
</poem>
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