जीवन की संचित अभिलाषा
साथ जोद़ता जोड़ता कितने मन पर
एकाकीपन बढ़ता जाता
कब तक यह अनहोनि अनहोनी घटती ही जाएगी
कब हाथों को हाथ मिलेगा
कब नयनों की भाषा
नयन समझ पाएँगेपाएंगे
कब सच्चाई का पथ
क्यों पाने की अभिलाषा में
मन हरदम ही कुछ खोता है !
ऐसा क्यों होता है ?
ऐसा क्यों होता है ?