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05:58, 25 जनवरी 2020 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अनामिका
|अनुवादक=
|संग्रह=अनुष्टुप / अनामिका
}}
<poem>
धीरे-धीरे जगहें छूट रही हैं,
बढ़ना सिमट आना है वापस--अपने भीतर!
पौधा पत्ती-पत्ती फैलता
बच जाता है बीज-भर,
और अचरज में फैली आँखें
बचती हैं बस बूँद-भर!
छूट रही है पकड़ से
अभिव्यक्ति भी धीरे-धीरे!
किसी कालका-मेल से धड़धड़ाकर
सामने से जाते हैं शब्द निकल!
एक पैर हवा में उठाये,
गठरी ताने
बिल्कुल आवाक खड़े रहते हैं
गंतव्य!
</poem>