1,246 bytes added,
19:03, 28 अगस्त 2008 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=महेन्द्र भटनागर
|संग्रह= अंतराल / महेन्द्र भटनागर
}}
<poem>
:घाव पुराने पीड़ा के
:जाने-अनजाने में सबके
:आज हरे गीले सूजे !
:रह-रहकर बह जाती असह्य लहर,
:मानो बिजली का तीव्र करेंट ठहर
:मांस मौन तड़पा देता !
:नाली के कीड़ों जैसा इधर-उधर
:जग के सारे ओर-छोर घेरे,
:हृदय विदारक
:नाशक
:मूक अभावों की
:धूल भरी अंधी
:आँधी बहती जाती !
:मर्माहत यौवन चीख रहा
:रोक भुजाओं से असफल !
:आज निराशा के बादल
:छाये नभ में उमड़-घुमड़ ;
:जीवन में,
:जन-जन-मन में हलचल !
:आज युगों के घाव हरे !
:हर उर में
:दुख-दर्द भरे !
:1949