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मैं तो ख़ुद चीख नहीं पाता पर गीतों में चिल्लाता हूँ।
जिस रात मुझे सन्नाटे की , आवाज सुनाई देती है। है, जिस रात मुझे मेरे दुख की , परछाई दिखाई छाया दिखलाई देती है।जिस रात घने अँधियारे में, मैं घुट-घुट कर रह जाता हूँ-, जिस रात मैं अपने सभी सपनों कोमैं, उम्मीदों को दफनाता हूँ ।उस रात मैं गाता हूँ दुख को , उस रात मैं तुझे बुलाता हूँ ।मैं तो ख़ुद चीख नहीं पाता पर गीतों में चिल्लाता हूँ।।हूँ।
जिस रात मेरी मजबूरी पर , यह हृदय सवाली होता है।जिस रात मेरे उत्तर का हर तरकश ही खाली होता है ।जिस रात मेरी यह खामोशी मुझको ही पल-पल डँसती है-जिस रात मेरे इस जीवन पर , मेरी हर आशा हँसती है ।उस रात मैं निज कविताओं से दुखों को गाता हूँ,सब पर पत्थर बरसाता हूँ ।मैं तो ख़ुद चीख नहीं पाता , पर गीतों शब्दों में चिल्लाता हूँ।।तुम्हें बसाता हूँ।
जिस रात अकेलापन पाकर, यह हृदय सवाली होता है, जिस रात उत्तरों का तरकश, प्रश्नों से खाली होता है। जिस रात डरी खामोशी भी, मुझपर क्रोधित हो जाती है, जिस रात तुम्हारी याद मुझे, वचनों की याद दिलाती है। उस रात मैं निज कविताओं से सब पर पत्थर बरसाता हूँ। जिस रात गरमजोशी सें से मैं , परवाज लगाने उठता हूँ। हूँ, जिस रात मैं कदम बढ़ाकर खुद , आगे कर मैं फिर बेवश होकर के झुकता रुकता हूँ।जिस रात मेरे इन कदमों पुराने निश्चय पर, मेरा यह मन भी पछताता है-, जिस रात मेरी लाचारी कोमुझे लाचार नहीं, मन कायरता बतलाता कायर पुरुष बताता है। उस रात मैं अपनी मिलीं हारों को मैं, गीतों में जीत दिलाता हूँ।मैं तो ख़ुद चीख नहीं पाता पर गीतों में चिल्लाता हूँ।।
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