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हे ईश्वर तुम कितने निर्दय।निठुर प्रिया से प्रीत लगाकरनिज हृद दर्द बसाया मैंने।
तुमको हरपल पूजा मैंने एकाकी संगीत हो गयातुमको हरपल सम्मान दिया, हर खुशियों गीतों मेंआँसू को बोकर, त्योहारों में है सिर्फ तुम्हारा ध्यान किया l बनी पीर की एक शृंृंखलापर समझ न सके पीर मेरीशब्द-कैसा निष्ठुर हो गया समय lहे ईश्वर तुम कितने निर्दय l शब्द में घाव पिरोकर।
तुम समझ नहीं पाए मेरे जिसे सदा अपना कहता थाउर अंतर के अरमानो को, तुमने दूषित कर डाला है इस जीवन के वरदानों को l जब प्रेम-समर्पण खोता है-मन हो जाता बिल्कुल निर्भय lहे ईश्वर तुम कितने निर्दय lपाया उसे पराया मैंने।
हे भाग्य विधाता आज कहो मन को है सुधियों ने घेरामैंने कैसा था पाप किया ?खिलीं नहीं चाहत की कलियाँ, क्या पुण्यों गिरीं टूटकर, बिखरी भू परआशाओं की कच्ची फलियाँ। विरहानल का आतप पाया,निज मन है मोल नहीं झुलसाया मैंने। कल था जिन सपनों को सींचाउन सपनों ने मुझको लूटा,छूट गये सारे ही बंधनक्या मिथ्या तेरा जाप किया ? पर बंधन से मोह न छूटा।बोलो इस पीड़ा के दायक-कैसे बोलूँ अब तेरी जय lहै वसंत का उत्सव जग मेंहे ईश्वर तुम कितने निर्दय lपतझड़ को अपनाया मैंने।
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