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आस्तीन का साँप / ऋतु त्यागी

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<poem>
बहुत गज़ब हो गया जनाब !
मेरी आस्तीन से साँप निकल आया।
कपड़े जब पहने थे
तो झाड़ लिया था क़ायदे से
पर न जाने कैसे चढ़ा साँप ?
मैंने सीधे-सीधे अपनी आँखों को
क़ुसूरवार ठहराया
आँखें दुख में थी
उनमें से आँसू टूटकर गिरने लगे
उन्हें देखकर
मैं थोड़ा शर्म से घायल हुई।
मैंने आँखों से कहा
"छोड़ो दिल से ना लो"
जो भी हुआ हो
पर साँप काट नहीं पाया मुझे"
मैंने कह तो दिया
पर अब दिल कटघरे में था
मैंने उससे कहा
"क्या तुम अपनी सफाई में कुछ कहोगे" ?
दिल ने उदासी से साँप को देखा
तब से साँप
दिल से ऐसे लिपटा
कि दिल बेईमान
और हम दिल के मरीज़
</poem>
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