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मौत और हम / ऋतु त्यागी

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<poem>
मौत ने दबी आवाज में पुकारा
और रूह
शरीर को छोड़कर चलती बनी।
वक़्त पर इल्ज़ाम है
कि वो किसी के लिए नहीं ठहरता
और साँसों पर
कि वह बीच रास्ते में दगा दे जाती हैं।
और रिश्तों का सच यही है
कि उनका सनसनीखेज़ ख़ुलासा
हमेशा किसी अपने की मौत के बाद होता है
फिर हमें महसूस होता है
कि जिनके प्यार की चाशनी
हम पर टपकती रहती थी
वह वीतरागी हो चुके हैं।
कुछ समय बाद वह हमारे
चेहरे की पहचान भी खोने लगते हैं।
मौत का एक अर्थशास्त्र भी होता है
जहाँ दावेदार क़ब्र से बाहर निकलकर
अपनी दावेदारी पेश करने लगते हैं
और जब हमारे साथ ये घट रहा होता है
तब हम हम नहीं रहते
कुछ और हो जाते हैं।
</poem>
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