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नारी (दोहे) / गरिमा सक्सेना

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नारी-
 
सृष्टि नहीं नारी बिना, यही जगत आधार।
नारी के हर रूप की, महिमा बड़ी अपार।।
नारी को अबला समझ, मत कर भारी भूल।
नारी इस संसार में, जीवन का है मूल।।
 
गुड़िया, कंगन, मेंहदी, नेह भरी बौछार।
बेटी खुशियों से करे, घर आँगन गुलज़ार।।
 
बेटी को नित कोख में, मार रहा संसार।
ऐसे में कैसे मने, राखी का त्योहार।।
 
बेटी हरसिंगार है, बेटी लाल गुलाब।
बेटी से हैं महकते, दो-दो घर के ख़्वाब।।
 
तितली सी उन्मुक्त है, बेटी की परवाज़।
किंतु कहाँ वह जानती, उपवन के सब राज।।
है सावित्री सी सती, बनती पति की ढाल।
अपने हक को लड़ स्वयं, तब होगा उत्थान।।
क्यूं क्यों नारी लाचार है, लुटती क्यूं क्यों है लाज।
क्या पुरुषत्व विहीन ही, हुई धरा ये आज।।
 
जब तक वह सहती रही, थी अबला लाचार।
ज्यों ही वह कहने लगी, बनी अनल, अंगार।।
 
संस्कृति की वाहक यही, इससे रीति- रिवाज।
नारी ही निर्मित करे, सुंदर सभ्य समाज।।
 
मन के जख़्मों की कहो, कहाँ लगाऊँ हाँक।
पत्नी ने यह सोचकर लिया चोट को ढाँक।।
 
दिन भर वह खटती रही, हुई सुबह से शाम।
घर आकर पति ने कहा, क्या करती हो काम?
 
कुक, टीचर, आया कभी , करे नर्स का रोल।
फिर भी क्यों घर में नहीं, नारी का कुछ मोल।।
 
नयी वधू के स्वप्न नव, अभी न पाये झूम।
औ दहेज की आग में, झुलस गयी मासूम।।
 
नारी, अबला ही रही, बदला कहाँ समाज।
अब भी लगती दाँव पर, द्रोपदियों की लाज।।
 
'साँप-नेवले'- सा हुआ, सास- बहू का प्यार।
छोटी सी तकरार में, टूट गया परिवार।।
 
अग्निपरीक्षा कब तलक, लेगा सभ्य समाज।
नारी की खातिर नहीं, बदला कल या आज।।
 
जयद्रथ, दु:शासन खड़े, गली-गली में कंस।
द्रौपदियाँ लाचार हैं, कौन करे विध्वंस।।
 
पहनावा ही था ग़लत, किया सभी ने सिद्ध।
चिड़िया रोती रह गई, बरी हो गये गिद्ध।।
 
हुआ पराया मायका, अपना कब ससुराल।
किस घर को अपना कहूँ, नारी करे सवाल।।
 
बनें आर्थिक रूप से, नारी सभी सशक्त।
बदलेगा यह देश तब, यही कह रहा वक्त।।
 
ओ नारी! सुन तू नहीं, एक उतारा वस्त्र।
पा ले हर अधिकार को, उठा स्वयं अब अस्त्र।।
 
घर कोई उजड़े नहीं, बदलें अगर विचार।
बहुओं को भी मिल सके, बेटी जैसा प्यार।।
 
ज्यों ही फैला गाँव में, कोई भीषण रोग।
नई बहू मनहूस है, लगा दिया अभियोग।।
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