मैं नहीं चाहता<br />कोई झरने के संगीत सा<br />मेरी हर तान सुनता रहे <br /> एक ऊंची पहाड़ी प' बैठा हुआ <br /> सिर को धुनता रहे।<br />
मैं अब <br /> झुंझलाहट का पुर-शोर सैलाब हूं<br />क़स्ब:-व-शहर को एक गहरे समुन्दर <br /> में ग़र्क़ाब करने के दरपै हूं।<br />
मैं नहीं चाहता<br />मेरी चीख़ को शायरी जानकर<br />क़द्रदानों के मजमे में ताली बजे<br />वाहवाही मिले<br />और मैं अपनी मसनद प' बैठा हुआ<br />पान खाता रहूं<br />मुस्कुराता रहूं।<br />
मैं नहीं चाहता<br />कटे बाज़ुओं से मिरे<br />क़तरा क़तरा टपकते हुए <br />सुर्ख़ सैयाल मे कीमिया घोलकर<br />एक ख़ुशरंग पैकर बनाए<br />रऊनत का मारा मुसव्विर कोई<br />और ख़ुदाई का दावा करे।<br />
इक ज़माने तलक<br />अपने जैसों के कांधों पे'<br />सिर रखके रोते रहे<br />मैं भी और मेरे अजदाद भी<br />अपने कानों में ही सिसकियां भरते भरते<br />मैं तंग आ चुका<br />बस -<br />
अपने हिस्से का ज़हर<br />अब मुख़ातिब की शह-रग में भी<br />दौड़ता, शोर करता हुआ<br />देखना चाहता हूं।<br />
मैं नहीं चाहता<br />गालियां दूं किसी को<br />तो वह मुस्कुरा कर कहे -'मरहबा'<br />मुझे इतनी मीठी जुबां की<br />ज़रुरत नहीं।<br />