1,984 bytes added,
06:33, 8 जून 2020 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
इस पर बहस नही कि
हम झेल रहे हैं-
सुखाड़
हमें निगल रही है-
बाढ़ पर बाढ़
हर साल
दरक रही है दीवार
हम सूख रहे हैं
दह रहे हैं
झेल रहे हैं-
महामारी,बेकारी
इस पर कोई बहस नही
टूटते-बिखरते
दहते-बहते
तहस-नहस होते
हमारे घरों-परिवारों पर
कोई बहस नही
उजड़ते-सिमटते जंगलों
ढहते-मिटकते पहाड़ों
विलुप्त होते पशु-पक्षियों की जातियों
प्रजातियों पर
कोई बहस नही
बहस का विषय है-
तुम्हारी जीत
तुम्हारी सुविधाओं
और तुम्हारी सरकार बनने की संभावनाओं
से सम्बन्धित योजनाएँ
बाढ़ में
तो तुम सब
पकड़ लेते हो उच्चासन
हमें पिला देते हो
सपनों भरे
नशीले भाषण
और अपने कुनबों के साथ
यानों में उड़-उड़ कर
लेते रहते हो
संहार बीच सेल्फ़ी
और स्वयं उबर जाते हो
मनु और सतरूपा की तरह
हर प्रलय से
और बाकी लोगों का कोई हिसाब नही
उनका कोई इतिहास नही
उनपर कोई बहस नही
</poem>