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05:32, 15 जून 2020 {{KKGlobal}}
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<poem>
हृद् तल में कोमल प्यार लिए जीता हूँ।
सबके हित भाव उदार लिए जीता हूँ।
भोर चिरैया चहचह चहके,
साँझ लौट घर आये।
दिनभर नीलगगन में बिचरे,
नरम पंख फैलाये।
ना हाथ गुलेल, कटार लिये जीता हूँ।
सबके हित भाव उदार लिये जीता हूँ।
मेरी बेटी नित है कहती-
'पापा जल्दी आना।'
पत्नी तकती राह शामको,
लेकर पानी- खाना।
उनके निमित्त सब भार लिये जीता हूँ।
सबके हित भाव उदार लिये जीता हूँ।
बालक था, जब समझ नहीं थी,
कुछ ना मैं बोला था।
माँ कहती थी, माँ ही कहते,
मैंने मुँह खोला था।
माँ की ममता सौ बार लिये जीता हूँ।
सबके हित भाव उदार लिये जीता हूँ।
पीड़ाओं को सहते- सहते,
सारी उमर गुजारी।
हाथ न फैले कभी, कहीं, ना
बतलाई दुश्वारी।
उनका वन्दन, सत्कार लिये जीता हूँ।
सबके हित भाव उदार लिये जीता हूँ।
</poem>