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<poem>
मैंने भी सपनों से सींचा है उपवन
फिर भी काँटे मेरे, पुष्प तुम्हारे हैं।
अतल भाव से बहुत किये अर्चन-वन्दन
मन्दिर मेरा सूना, देव तुम्हारे हैं।

सुगम अकंटक पथ तेरा है,
वियावान मेरे हिस्से।
छाले मेरे भी पाँवों में,
क्यों फिर बस तेरे किस्से?
मैंने भी तो वार दिया सारा जीवन,
खाली हैं घट मेरे, भरे तुम्हारे हैं।

गहन तिमिर में जलते दीपक
मैं हूँ अविचल-सी बाती।
आये कितने चले गये सब
रहा अकेला संघाती।
जगहित होता जहाँ कहीं सागरमंथन,
विष मेरा है, अमृतकलश तुम्हारे हैं।

मैं तिनके-सा उड़ा नहीं हूँ,
भले मरुत उनचास चले।
टुकड़ों में ना बाँटा खुद को
रहा नित्य विश्वास तले।
जब-जब झलक दिखाते आ के रघुनन्दन
मूँदे मेरे नैना खुले तुम्हारे हैं।

शायद मेरी पूजा में ही
अहंकार आ बैठ गया।
नहीं समर्पण भाव हृदय में,
मैं भी किंचित ऐंठ गया।
गाँठें खुलीं, न खुले कभी मिथ्या बंधन,
द्वार बंद मेरे हैं, खुले तुम्हारे हैं।
</poem>
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