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05:35, 15 जून 2020 {{KKGlobal}}
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<poem>
दुरभिसंधि में उलझा मन जब बाहर कभी निकलता है।
खुद को खुद ही से छलता है।
रत्नजटित उष्णीष माथ धर बन महीप भर अहंकार।
कभी वेश धर याचक-सा फिर रोता फिरता जार-जार।
दाता परम महान कभी फेंके टुकड़ों पर पलता है।
उपवन की गंधों में डूबा नवपुष्पों का संगी बन।
धूल-कींच से भरी राह पर चल पड़ता बहुरंगी बन।
शांत सरोवर मौन कभी
नदियों-सी तरल विकलता है।
करवट, तड़प, बेकली में तो सभी समर्पण, घातें हैं।
खुद से बात, उनींदी पलकें ऐसे गुजरी रातें हैं।
दिव्यलोक में मन विचरे फिर सुर 'संगीत' निकलता है।
</poem>