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मिलन / विकास पाण्डेय

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<poem>
तुम धरा बन जा, मुझको गगन होने दो,
हृदय के क्षितिज पर मिलन होने दो।

अनुक्रिया तुम बनो, मैं उद्दीपक बनूँ,
तुम बन जाना लौ, मैं जो दीपक बनूँ।

प्रीति की दीप्ति उज्ज्वल सघन होने दो,
ह्रदय के क्षितिज पर मिलन होने दो।

तुम बनो धारा जल की, मैं गागर हुआ,
तुम नदी बनके आना, मैं सागर हुआ।

एक दूजे में शाश्वत मगन होने दो,
हृदय के क्षितिज पर मिलन होने दो।

सूर्य की रश्मि तुम, मैं हिमालय शिखर,
तुमसे होता रहूँ स्वर्णमय और प्रखर।

दीप्त कंचन-सा मेरा वदन होने दो,
हृदय के क्षितिज पर मिलन होने दो।

तुम धरा बन जा मुझको गगन होने दो,
हृदय के क्षितिज पर मिलन होने दो
</poem>
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