उनकी (पद्माकर) अनूभूति और अभिव्यक्ति के बीच एक मौलिक कलाकार भी उभरने का प्रयत्न कर रहा है, जिसने जगह जगह उनकी अभिव्यक्ति को कुछ विशष्टिता देने का प्रयत्न किया है। जब याद के लिए वे कहते है:
<poem>’और मन के कारखाने की
धधकती भट्टियों में,
आग बन कर तुम्हारी;
याद फिर जलने लगी हैं।'
नर्तन के लिए कहते हैं
और नर्तकी चली
नृत्य की ताल से जूझने,
तबले की थापों पर विजय पाने</poem>
तो उनकी सूझो में जो नयापन है उसकी ओर घ्यान बरबस खिंच जाता है। और इनको मैं वे ‘चिकने पात’ कहूँगा जो उनके होनहार होने कर संकेत करते है।
...
गाँव से शहर की ओर आती सभ्यता उनके शब्दों में:
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विद्युत के ज्योति सर्प दीपों को डँसते हैं
शहरों में गल रहे गाँव हैं
वहीं शहरों में पनप रही बेमानी-औ-एकाकी जीवन उनके लिए।
बेमन ही लोगों से बतियाते लोग हैं
ओढ़े हैं अभिनय का आवरण
कौफ़ी के प्यालों में चिंतन को घोलते
पीते सिगरेटी वातावरण
चर्चित अस्तित्ववाद विगलित पल-पल
गीत विहग उड़ किसी मौन नगर चल।</poem>
साठ -सत्तर और अस्सी के दशक की भुखमरी, बेरोज़गारी, और आपातकालिक राजनैतिक परिदृश्य में ग़रीबी और सामाजिक-विषमताओं के बीच लगते राजनेतिक नारों के लिए उनके शब्द-औ-भाव झुंझलाकर कह उठते है।
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जंग लगे भाषण ही छपते अख़बारों में
युग चिंतन सठियाया बेमानी नारों में
अपनो से कटे कटे, बिके हुए कण्ठों से
झूठे आश्वासन को कब तलक पिएँ हम?</poem>
विरह औ वेदना में भी अपनी प्रेमिका का श्रृंगार करने वाला ये प्रगतिशील युवा कवि राष्ट्रीय-मंच से, हरिवंश राय बच्चन, गोपालदास नीरज, भरतभूषण, जैसी साहित्यिक रश्मियों से आशीर्वाद ले, अपने गीतों का गायन कर श्रोताओं के साथ एक अटूट सम्बंध बना लेते थे! समय समय पर आकाशवाणी और विविध भारती से प्रसारित उनके गीतों के मुरीद आज इतने.वर्ष बीत जाने के बाद भी अक्सर देश के दूरदराज इलाक़ों में उनकी रचनाएँ गुनगुनाते मिल जाते हैं।
ये एक कवि रूप में, देश.विदेश में ख्याति अर्जित कर ही रहे थे कि असमय ही ४ अगस्त १९८७ को चढ़ते सूरज एक ट्रेन.ऐक्सिडेंट ने मात्र ४३ वर्ष की छोटी सी उम्र में, बेपरवाह परवाज़ें भरते उनके गीत.विहगों पर विराम लगा दिया!